Tuesday, November 15, 2016
सरहद के पार हाफ़िज़ तेरा
ए दिल है मुश्किल फिल्म से यह भजन / गीत / कविता / इबादत
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कहते हैं , कविताओं को समझना आसान नहीं , लेकिन कोशिश तो की जा सकती है । आखिर कोई कारण तो रहे होंगे जो यह कविता भारत मे नाज़िल हुई ।
मेरी रूह का परींदा फड़फडाये
लेकिन सुकून का जज़ीरा मिल न पाए
वे की करां.. वे की करां..
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , की रूह फड़फड़ा रही है , सुकून नहीं मिल रहा है , मैं क्या करूँ ? सुकून - अल्लाह की राह मे जिहाद है और वो हो नहीं पा रहा है । रूह बैचेन हो रही है ।
इक बार को तैजल्ली तो दिखा दे
झूठी सही मगर तसल्ली तो दिला दे
वे की करां.. वे की करां..
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , दिल्ली दिखा दे , दिल्ली फतह की झूठी तसल्ली ही दे दे । आखिर वो क्या करें ?
रान्झां दे वार बुल्लेया, सुने पुकार बुल्लेया, तू ही तो वार बुल्लेया
मुशिद मेरा, मुशिद मेरा
तेरा मुकाम कमली, सरहद के पार बुल्लेया, परवरदिगार बुल्लेया
हाफ़िज़ तेरा, मुर्शिद मेरा
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , पागल तेरे सच्चे आशिक सरहद के पार ही हैं । सरहद के पार ही हाफ़िज़ सईद है ।
मैं काबुल से लिपटी तितली की तरह मुहाजिर हूँ
एक पल को ठहरूं पल में उड़ जाऊं
वे मैं तां हूँ पगडंडी लाभादी ऐ जो राह जन्नत दी
तू मुड़े जहाँ मैं साथ मुड़जाऊं
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , मैं मुहाजिर हूँ, देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान चला गया था । अब केवल बम लगाने आता हूँ , और एक पल मे फट जाता हूँ ।
तेरे कारवां में शामिल होना चहुँ
कामिल तराश के मैं क़ाबिल होना चहुँ
वे की करां.. वे की करां..
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , किसी तरह तेरे गिरोह मे शामिल होना चाहता हूँ, बहुत काबलियत से लव जिहाद करना चाहता हूँ । आखिर हम करें क्या ?
जिस दिन से आशना से दो अजनबी हुवे हैं
तन्हाईओं के लम्हें सब मुल्तबी हुवे हैं
क्यूँ आज मैं मोहब्बत
फिर एक बार करना चाहूँ हाँ..
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , विभाजन के बाद हम अजनबी हो गए हैं । आज फिर काफिरों की औरतों से मोहब्बत करना चाहता हूँ, फिर से एक बार करना चाहता हूँ, एक बार के बाद तलाक दे दूँगा ।
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ये दिल तो ढूंढता है इनकार के बहाने
लेकिन ये जिस्म कोई पाबंदियां ना माने
मिल के तुझे बगावत
ख़ुद से ही यार करना चाहूँ
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , बहुत हुये इंकार के बहाने, बस करो अब्बू जाग जाएँगे , या अल्लाह की देन अभी सोई नहीं है थोड़ा रुको , लेकिन जिस्म की भूख कोई पाबंदी नहीं मानती , मैं भूखा हूँ, तुम नहीं आई तो फरिश्ते तुम पर लानत भेजेंगे । इस भूख के चलते मैं चार निकाह कर सकता हूँ, कई तलाक दे सकता हूँ । मैं तुम काफिर का जिस्म हासिल कर खुद से बगावत करना चाहता हूँ ।
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मुझमें अगन है बाकी आजमा ले
ले कर रही हूँ मैं ख़ुद को तेरे हवाले
वे रांझना.. वे रांझना..
...................... अर्थात कवि कहना चाहता है , इतनी बात के बाद काफिर हसीना ने समर्पण कर दिया है । काफिर हसीना कहती है , मैं आज भी जवान हूँ, आज भी गरम हूँ , मैं तुझको अपना बदन सौंपती हूँ - आ जाओ ।
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पता नहीं - अर्थ का अनर्थ ना हो गया हो , लेकिन विद्वान मित्र अनुवाद मे सहायता करें हो सकता है , अर्थ कुछ दूसरा भी हो और मुझे समझ ना आया हो
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